Friday, January 15, 2016

Review: Non Resident Bihari ( नॉन रेजिडेंट बिहारी ) by Shashikant Mishra

Author: Shashikant Mishra
Publisher: Radhakrishna Prakashan
ISBN: 978-81-8361-796-3
Year: 2015
Rating: ☆☆☆☆

क्या होता है जब बिहार में किसी भी थोड़े सम्पन्न परिवार में बच्चे का जन्म होता है? उसके जन्मते ही उसके बिहार छूटने का दिन क्यों तय हो जाता है? जब सभी जानते हैं कि मूंछ की रेख उभरने से पहले उसको अनजान लोगों के बीच चले जाना है— तब भी क्यों उसको गोलू-मोलू-दुलारा बना के पाला जाता है? वही ‘दुलारा बच्चा’ जब आख़िरकार ट्रेन में बिठाकर बिहार से बाहर भेज दिया जाता है तब क्या होता है उसके साथ? सांस्कृतिक धक्के अलग लगते हैं, भावनात्मक अभाव का झटका अलग— इनसे कैसे उबरता है वह? क्यों तब उसको किसी दोस्त में माशूका और माशूका में सारे जहाँ का सुकून मिलने लगता है? ‘एनआरबी’ के नायक राहुल की इतनी भर कहानी है— एक तरफ यूपीएससी और दूसरी तरफ शालू. यूपीएससी उसकी जिंदगी है, शालू जैसे जिंदगी की ‘जिंदगी’. एक का छूटना साफ़ दिखने लगता है और दूसरी किनारे पर टंगी पतंग की तरह है. लेकिन इसमें हो जाता है लोचा। क्या? सवाल बहुतेरे हैं. जवाब आपके पास भी हो सकते हैं. लेकिन ‘नॉन रेजिडेंट बिहारी’ पढ़ कर देखिए— हर पन्ना आपको गुदगुदाते, चिकोटी काटते, याद-गली में भटकाते ले जाएगा एक दिलचस्प अनुभव की ओर.

Review: जब पहली बार शीर्षक फेसबुक पर देखा तो लगा कि ये हिंदी की पहली उपन्यास हो सकती है जिसे पढना चाहिए। छट से Amazon पे कुछ और पुस्तकों के साथ आर्डर कर दिया। सारी बुक्स की डिलीवरी हो गई लेकिन ये कैंसिल हो गया। संयोग से पुस्तक मेले की खबर लगी और ले आया।  एक झलक देखा पुस्तक को।  चैप्टर या टॉपिक में विभाजित नहीं।  लगा कि पढने समय शायद पेज को मोड़ कर रखना पड़ेगा अगले दिन उससे आगे पढने के लिए। लेकिन इस पुस्तक को पढ़ते समय जो हुआ वो इससे पहले किसी भी पुस्तक को पढ़ते समय अबतक नहीं हुआ था।  एक शुर में पढता चला गया। और पता ही नहीं चला कि मैं बिना किसी ब्रेक के पढ़ रहा हूँ। कभी हलकी गुदगुदी, कभी ठहाका, कभी सिरियस।  ऐसा लगा कि शायद अपनी ही कहानी पढ़ रहा हूँ या फिर कोई दोस्त अपने बारे में बता रहा हो। ये भी पहली बार ही हुआ कि एक दिन में ही पूरी किताब पढ़ डाली हो। कहने को तो कहानी काल्पनिक है लेकिन कहीं भी काल्पनिकता झलकी नहीं सिवाय कहानी के एंडिंग के। वो शायद इसलिए कि कभी ऐसी एंडिंग होते हुए देखा नहीं सिवाय फिल्मो के। पूरी मनोरंजन के साथ कब एक आम जीवन की कहानी कह गया पता ही नहीं चला। राहुल और संजय की जोड़ी कभी कभी Raanjhanaa फिल्म के किरदार कुंदन और मुरारी कि याद दिला रहा था। बातों ही बातों में अपने कुछ कटाक्ष के जरिये राजनीति और धर्म के ठेकेदारों की हकीकत भी बयां कर दी मिश्र जी ने। और जाती-पाती के बंधन में घूंटते समाज को आइना भी दिखाया है। कहने को कहानी बिहारी की है, हाँ...वही नॉन रेजिडेंट बिहारी NRB लेकिन दिल्ली में आये हुए दुसरे राज्यों के नॉन रेजिडेंट की भी यही कहानी है। ऐसा लगा कि अपने सर्किल में कुछ खास शब्द जैसे कि NRB, USB .... को एक मीनिंग मिल गया हो। सच पूछिये तो कहानी काल्पनिक नहीं बल्कि हर नॉन रेजिडेंट की हकीक़त है जो कहीं मुखर्जी नगर या लक्ष्मी नगर के किसी लौज के किसी कमरे में दबी रह जाती है। बाकि तो खुद पढ़िए और महसूस कीजिये कतई भी निराश नहीं करेगी उपन्यास।